Panchmukhi Tirth Yatra Chhattisgarh
RAMESHWARAM DHAM YATRA
1.)श्री तिरुपति बालाजी, 2.)श्री रामेश्वरम धाम ज्योतिर्लिंग, 3.)श्री कन्याकुमारी, 4.)श्री मदुरै मिनाक्षी देवी, 5.)श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग, 6.)श्री साक्षी गणपति स्वामी मंदिर
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KEY FEATURES
श्री तिरुपति बालाजी - पौराणिक कथा के अनुसार भगवान कलियुग के दौरान भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए थे। एक बार, ऋषि भृगु यह मूल्यांकन करना चाहते थे कि पवित्र त्रिमूर्ति में से कौन सबसे महान था। जब उन्होंने भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव से जाँच की, तो वे संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए वे वैकुंठ गए और भगवान विष्णु की छाती पर लात मारी। देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु की छाती में निवास कर रही थीं, उन्होंने अपमानित महसूस किया और वैकुंठ को छोड़कर पृथ्वी पर आ गईं। दुखी और निराश, भगवान विष्णु अपनी पत्नी महालक्ष्मी की तलाश में केवल यह जानने के लिए आए कि उन्होंने पद्मावती के रूप में एक राजा के परिवार में जन्म लिया है। और भगवान विष्णु जी और मां लक्ष्मी मां का विवाह होता है।भी देवताओं ने इस विवाह में सम्मिलित हुए थे। किंतु विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई विवाह के उपलक्ष में लक्ष्मी जी को भेट करने हेतु विष्णु जी ने कुबेर जी से धन उधार लिया। जिसे कलयुग के समापन तक ब्याज सहित चुका देने का वचन दिया। ऐसी मान्यता है की जब कोई भक्त तिरुपति बालाजी के दर्शन कर सच्चे मन से कुछ भेट चढ़ाता है तो वो न केवल श्रद्धा भक्ति का अर्थ प्रार्थना करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर जी से लिया गया ऋण को चुकाने में सहायता करता है। अतः भगवान विष्णु ऐसे भक्त को खाली नही जाने देते है जितनी चढ़ावा बालाजी में चढ़ाते है। ऐसी मान्यता है कि उस भक्तजन को बालाजी व्यवसाय में उन्नति कर कर सुत समेत सहित वापसी करवा देते है
श्री रामेश्वरम धाम, - माना जाता है कि भगवान श्रीराम ने श्रीलंका से लौटते समय देवों के देव महादेव (Lord Shiva) की इसी स्थान पर पूजा की थी। इन्हीं के नाम पर रामेश्वर मंदिर और रामेश्वर द्वीप का नाम पड़ा। ऐसी मान्यता है कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीता के साथ रामेश्वरम के तट पर कदम रखकर ही भारत लौटे थे।
श्री कन्याकुमारी - हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कन्या देवी पार्वती की अवतार थीं और उनका विवाह भगवान शिव से होना था। लेकिन, भगवान शिव अपनी शादी के दिन प्रकट होने में असफल रहे और महिला जीवन भर अविवाहित रही। इसलिए इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है।
श्री मदुरै मिनाक्षी देवी - मीनाक्षी और शिव का विवाह सबसे बड़ा आयोजन था, जिसमें सभी देवी-देवता और जीव एकत्रित होते थे। विष्णु को मीनाक्षी का भाई माना जाता है। विष्णु उसे शादी में शिव को दे देते हैं। मंदिर शहर के रूप में चित्रित करते हैं जहां हर सड़क मंदिर से निकलती है।एक पौराणिक कथा के अनुसार, मीनाक्षी एक 'यज्ञ' (पवित्र अग्नि) से तीन साल की बच्ची के रूप में निकली। 'यज्ञ' मलयध्वज पांड्या नाम के एक राजा ने अपनी पत्नी कंचनमलाई के साथ किया था। चूंकि शाही जोड़े की कोई संतान नहीं थी, इसलिए राजा ने भगवान शिव से प्रार्थना की, उनसे उन्हें एक पुत्र देने का अनुरोध किया। लेकिन उनकी निराशा के लिए, पवित्र अग्नि से एक तिहरे स्तन वाली लड़की निकली। जब मलयाध्वज और उनकी पत्नी ने लड़की के असामान्य रूप पर अपनी चिंता व्यक्त की, तो एक दिव्य आवाज ने उन्हें लड़की की शारीरिक बनावट के बारे में चिंता न करने का आदेश दिया। उन्हें यह भी बताया गया कि अपने होने वाले पति से मिलते ही लड़की का तीसरा स्तन गायब हो जाएगा। राहत प्राप्त राजा ने उसका नाम मीनाक्षी रखा और नियत समय में उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में ताज पहनाया। मीनाक्षी ने प्राचीन शहर मदुरै पर शासन किया और पड़ोसी राज्यों पर भी कब्जा कर लिया। किंवदंती है कि उसने भगवान इंद्र के निवास इंद्रलोक पर भी कब्जा कर लिया था, और भगवान शिव के निवास कैलाश पर भी कब्जा करने के रास्ते में थी। जब शिव उसके सामने प्रकट हुए, मीनाक्षी का तीसरा स्तन गायब हो गया और वह जानती थी कि वह अपने जीवनसाथी से मिल चुकी है। शिव और मीनाक्षी मदुरै लौट आए जहां उनकी शादी हुई। कहा जाता है कि इस शादी में सभी देवी-देवता शामिल हुए थे। चूंकि पार्वती ने स्वयं मीनाक्षी का रूप धारण किया था, इसलिए पार्वती के भाई भगवान विष्णु ने उन्हें भगवान शिव को सौंप दिया। आज भी, विवाह समारोह हर साल 'चिथिराई थिरुविझा' के रूप में मनाया जाता है जिसे 'तिरुकल्याणम' (भव्य विवाह) के नाम से भी जाना जाता है।
श्री मल्लिकार्जुन - शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृत्तांत कहा सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज़ कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये। माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये तभी से वे ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘मल्लिका’ माता पार्वती का नाम है, जबकि ‘अर्जुन’ भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से ‘मल्लिकार्जुन’ नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ।
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